दीये की जोत से मिलते हैं अनेकों लाभ
ज्योति (दीये में जलाने वाली जोत) दो प्रकार ही होती है। प्रातः कालीन व सायंकालीन लेकिन समयानुसार या साधना अनुसार या नियम अनुसार यह दोपहर व रात्रि को भी अनेकों उत्सवों में प्रज्ज्वलित की जाती है।
प्रातः कालीन दीप मंजरी से यह अभिप्राय है कि हे प्रभु! हमारा सारा समय उत्तम प्रकार से सत्कर्मों को करते हुए व्यतीत हो। हम अपने जीवन में अपने परिवार की लिए लौकिक-आलौकिक सुखों को आप के माध्यम से प्राप्त करके परिवार को समर्पित करें। सभी अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर उन्नति करें व संस्कारो को उन्नत करें।
अत: प्रातः कालीन जोत संस्कार देती है, यश प्रदान करती है, दीर्घायु देती है, धन में वृद्धि करती है और मानसिक संतापों को हरने वाली होती है। प्रातः कालीन जोत करने वाले जीव जिस कार्य में भी हाथ डालते हैं वह कार्यों उनकी यथारूचि पूर्ण होता है। कारण, यह अखंड सौभाग्य देने वाली होती है और सौभाग्यशाली जीव जहां भी जाएगा, वहां स्वयं खुशहाली आ जाएगी।
अनेकों प्रकार के दुर्भाग्य भाग जाते हैं, अनेकों रोगों से मुक्ति होती है और खाया हुआ भोजन सुपाच्य हो जाता है व शरीर की रचना स्वयं में सही प्रकार से संचालित होती है। रक्त चाप उच्च या निम्न नहीं होता, हृदय गति अवरुद्ध नहीं होती नेत्र ज्योति सम्पूर्ण रूप से कार्य करती है और असमय सिर के बाल नहीं झड़ते, एवं कान, नासिक व दांत यह दीर्घायु तक भी सुचारू कार्ये करते रहते है।
ज्वर आदि प्रकोप नहीं होते, गलकंठ नहीं होती। कार्य करने की क्षमता स्वतः ही उत्साही हो जाती है। आलस्य का परित्याग हो जाता है इसलिए कहा है की प्रथम सुख निरोगी काया।
इस प्रातः कालीन जोत से एक अचूक परिवर्तन जो जीवन में होता है वह बहुत चमत्कारी होता है क्रोध जो शरीर को हानि पहुंचाता है नियंत्रण में रहता है। लालसाएं, द्वेष, कुविचार और आत्मगलानि जैसे कोई भी कर्म जीवन में प्रवेश नहीं करते। तर्क, सुतर्को में बदल जाते हैं बुद्धि तीव्र हो जाती हैं व निर्णय लेने की क्षमता परिपक्व हो जाती है। जिससे समय के मापदंड को पहचानते हुए समय का सदुपयोग होता है।
व्यर्थ के दिखावे, खर्चे, आमोद-प्रमोद व मनोरंजन आदि इन सबसे समय रहते हुए प्राणी बच जाता है और जहां इतना कुछ केवल मात्र प्रातः कालीन जोत प्रज्ज्वलित करने से मिलता हो, तो इतने बड़े उल्लासित संस्कार को आजीवन करने में क्या हानि है।
दादी और बाबा के संस्कार व किए गए सत्कर्म व कुकर्म तीसरी और पांचवी पीढ़ी तक मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि इतना बड़ा सत्कर्म हम कर रहे हैं वह हमारी आने वाली पीढ़ियों को प्राप्त होगा व जीवन का सही निर्वाह होगा यह सौ प्रतिशत वचनबद्धता है।
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