मंगलवार, 10 सितंबर 2019

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है-_* _ख्वाहिश नहीं मुझे_ _मशहूर होने की,"_ _आप मुझे पहचानते हो_ _बस इतना ही काफी है।_ _अच्छे ने अच्छा और_ _बुरे ने बुरा जाना मुझे,_ _जिसकी जितनी जरूरत थी_ _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_ _जिन्दगी का फलसफा भी_ _कितना अजीब है,_ _शामें कटती नहीं और_ _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_ _एक अजीब सी_ _'दौड़' है ये जिन्दगी,_ _जीत जाओ तो कई_ _अपने पीछे छूट जाते हैं और_ _हार जाओ तो_ _अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_ _बैठ जाता हूँ_ _मिट्टी पे अक्सर,_ _मुझे अपनी_ _औकात अच्छी लगती है।_ _मैंने समंदर से_ _सीखा है जीने का सलीका,_ _चुपचाप से बहना और_ _अपनी मौज में रहना।_ _ऐसा नहीं कि मुझमें_ _कोई ऐब नहीं है,_ _पर सच कहता हूँ_ _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_ _जल जाते हैं मेरे अंदाज से_ _मेरे दुश्मन,_ _एक मुद्दत से मैंने_ _न तो मोहब्बत बदली_ _और न ही दोस्त बदले हैं।_ _एक घड़ी खरीदकर_ _हाथ में क्या बाँध ली,_ _वक्त पीछे ही_ _पड़ गया मेरे!_ _सोचा था घर बनाकर_ _बैठूँगा सुकून से,_ _पर घर की जरूरतों ने_ _मुसाफिर बना डाला मुझे!_ _सुकून की बात मत कर_ _ऐ गालिब,_ _बचपन वाला इतवार_ _अब नहीं आता!_ _जीवन की भागदौड़ में_ _क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_ _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_ _आम हो जाती है!_ _एक सबेरा था_ _जब हँसकर उठते थे हम,_ _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_ _ही शाम हो जाती है!_ _कितने दूर निकल गए_ _रिश्तों को निभाते-निभाते,_ _खुद को खो दिया हमने_ _अपनों को पाते-पाते।_ _लोग कहते हैं_ _हम मुस्कुराते बहुत हैं,_ _और हम थक गए_ _दर्द छुपाते-छुपाते!_ _खुश हूँ और सबको_ _खुश रखता हूँ,_ _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_ _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_ _मालूम है_ _कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_ _कुछ अनमोल लोगों से_ _रिश्ते रखता हूँ।_ 🌹🌹🌹🤝शुभेच्छु

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है-_*

_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,"_

        _आप मुझे पहचानते हो_
        _बस इतना ही काफी है।_

_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_

        _जिसकी जितनी जरूरत थी_
        _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_

_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_

        _शामें कटती नहीं और_
        _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_

_एक अजीब सी_
_'दौड़' है ये जिन्दगी,_

        _जीत जाओ तो कई_
        _अपने पीछे छूट जाते हैं और_

_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_

_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर,_

        _मुझे अपनी_
        _औकात अच्छी लगती है।_

_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_

        _चुपचाप से बहना और_
        _अपनी मौज में रहना।_

_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_

        _पर सच कहता हूँ_
        _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_

_जल जाते हैं मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_

              _एक मुद्दत से मैंने_
       _न तो मोहब्बत बदली_
      _और न ही दोस्त बदले हैं।_

_एक घड़ी खरीदकर_
_हाथ में क्या बाँध ली,_

        _वक्त पीछे ही_
        _पड़ गया मेरे!_

_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा सुकून से,_

        _पर घर की जरूरतों ने_
        _मुसाफिर बना डाला मुझे!_

_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_

        _बचपन वाला इतवार_
        _अब नहीं आता!_

_जीवन की भागदौड़ में_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_

        _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
        _आम हो जाती है!_

_एक सबेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_

        _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_
        _ही शाम हो जाती है!_

_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_

        _खुद को खो दिया हमने_
        _अपनों को पाते-पाते।_

_लोग कहते हैं_
_हम मुस्कुराते बहुत हैं,_

        _और हम थक गए_
        _दर्द छुपाते-छुपाते!_

_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_

        _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_
        _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_

_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_

        _कुछ अनमोल लोगों से_
        _रिश्ते रखता हूँ।_
🌹🌹🌹🤝शुभेच्छु

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