आत्मा और परमात्मा का संबंध
आधुनिक विज्ञानीजन तक जो आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, पर साथ ही हृदय से शक्ति साधन की व्याख्या भी नहीं कर पाते, उन परिवर्तनों को स्वीकार करने को बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौमारावस्था और फिर तरुणावस्था तथा वृद्धावस्था में होते रहते हैं. वृद्धावस्था से यही परिवर्तन दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाता है.
अणु आत्मा का दूसरे शरीर में स्थानांतरण परमात्मा की कृपा से ही संभव हो पाता है. परमात्मा अणु आत्मा की इच्छाओं की पूर्ति उसी तरह करते हैं, जिस प्रकार एक मित्र दूसरे की इच्छापूर्ति करता है. मुंडक तथा श्वेतातर उपनिषदों में आत्मा तथा परमात्मा (अणुआत्मा) की उपमा दो मित्र पक्षियों से की गई है जो एक ही वृक्ष पर बैठे हैं.
इनमें से एक पक्षी (अणु आत्मा) वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा (कृष्ण) अपने मित्र को देख रहा है. यद्यपि दोनों पक्षी समान गुण वाले हैं, किंतु इनमें से एक भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है और दूसरा मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र है. कृष्ण साक्षी पक्षी है और अर्जुन फल भोक्ता पक्षी.
यद्यपि दोनों मित्र (सखा) हैं फिर भी एक स्वामी है और दूसरा सेवक है. अणु आत्मा द्वारा इस संबंध की विश्वस्मृति ही उसके एक वृक्ष से दूसरे पर जाने का कारण है. जीव आत्मा प्राकृत शरीर रूपी वृक्ष पर अत्यधिक संघषर्शील है. किंतु ज्यों ही वह दूसरे पक्षी को परम गुरु के रूप में स्वीकार करता है, त्यों ही परतंत्र पक्षी तुरंत सारे शोकों से विमुक्त हो जाता है.
यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, किंतु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता के रूप में चिंता तथा विषाद में निमग्न है. यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उसकी महिमा को जान लेता है, तो कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरंत सभी चिंताओं से मुक्त हो जाता है.
भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि वह अपने पितामह तथा गुरु के देहांतरण पर शोक प्रकट न करे अपितु उसे धर्मयुद्ध में उनके शरीरों का वध करने में प्रसन्न होना चाहिए. जिससे वे सब विभिन्न शारीरिक कर्मफलों से तुरंत मुक्त हो जाएं. बलिवेदी या धर्मयुद्ध में प्राणों को अर्पित करने वाला व्यक्ति तुरंत शारीरिक पापों से मुक्त हो जाता है.
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