∗राजिया रा दूहा∗
– Rajiya raa Duha –
“एक कवि ने अपने सेवक को अमर किया”
नीति सम्बन्धी राजस्थानी सौरठों में “राजिया रा दुहा” प्रसिद्ध है. भाषा और भाव दोनों दृष्टि से दोहा संग्रह उत्तम श्रेणी का है. संबोधन काव्य के रूप में शायद यह पहली रचना है. इन सौरठों की रचना राजस्थान के प्रसिद्ध कवि कृपाराम जी ने अपने सेवक राजिया को संबोधित करते हुए की थी. कवि कृपाराम जी तत्कालीन मारवाड़ राज्य के खराडी गांव के निवासी खिडिया शाखा के चारण जाति के जगराम जी के पुत्र थे. जगराम जी को कुचामण के शासक ठाकुर जालिम सिंह जी ने जसुरी गांव की जागीर प्रदान की थी. वहीँ कृपाराम जी का जन्म 1825 में हुआ था. राजस्थानी भाषा डिंगल और पिंगल के उतम कवि व अच्छे संस्कृज्ञ होने नाते उनकी विद्वता और गुणों से प्रभावित होकर सीकर के राव राजा लक्ष्मण सिंह जी ने महाराजपुर और लछमनपुरा गांव इन्हे 1847 और 1858 में जागीर में दिए थे.
राजिया नामक एक व्यक्ति कृपाराम जी सेवक था. एक बार कवि के बीमार पड़ने पर सेवक राजिया ने उनकी खूब सेवा सुश्रुषा की. इस सेवा कवि बहुत प्रसन्न हुए. राजिया के कोई संतान नहीं होने के कारण राजिया बहुत दुखी रहता था कि, उसके मरने के बाद उसका कोई नाम लेने वाला भी नही होगा. अतः उसके इसी दुःख को दूर करने हेतु अपनी सेवा से खुश कवि ने कहा वह अपनी कविता द्वारा ही उसे अमर कर देंगे. राजिया को अमर करने के लिए ही विद्वान कवि ने उसे संबोधित करते हुए नीति सम्बन्धी दोहो की रचना की. जो राजिया रा दुहा या राजिया रे सौरठे नाम से प्रसिद्ध है. अपने दोहों के माध्यम राजिया को वास्तव में इतना प्रख्यात कर दिया कि, आज भी लोग राजिया का नाम तो जानते हैं पर कवि कृपाराम जी को बहुत कम लोग ही जानते हैं.
“राजिया रा दुहा”
1.
हीमत कीमत होय, विन हिमत कीमत नही।
करे न आदर कोय,रद कागद ज्यूं राजिया॥
अर्थ : हिम्मत से ही मनुष्य का मूल्यांकन होता है, अत: पुरुषार्थहीन मनुष्य का कोई महत्व नहीं. हे राजिया ! साहस से रहित व्यक्ति रद्दी कागज की भांति होता है, जिसका कोई आदर नही करता.
2.
साचो मित्र सचेत, कह्यो काम न करै किसौ।
हर अरजन रै हेत, रथ कर हाक्यों राजिया॥
अर्थ : जो सच्चा मित्र होता है, वह अपने मित्र के हितार्थ तत्परता से कौन सा कार्य नहीं करता है? हे राजिया ! श्री कृष्ण ने तो अपने मित्र अर्जुन के लिए रथ अपने हाथो से हांका था.
3.
उद्दम करो अनेक, अथवा अनउद्दम करौ।
होसी निहचै हेक, रांम करै सो राजिया॥
अर्थ : अर्थात मनुष्य चाहे कितना ही उद्यम करे अथवा न करे , किंतु हे राजिया ! निश्चय ही होता वही है जो ईश्वर करता है.
4.
पढ़बो वेद पुराण , सोरौ इण संसार में।
बांता तणौ बिनाँण, रहस दुहेलौ राजिया॥
अर्थ : इस संसार में वेद-पुराण आदि शास्त्रों को तो पढ़ना आसान है किंतु हे राजिया ! बात करने की विशिष्ट विद्या का रहस्य सीखना-समझना बहुत कठिन है.
5.
आछा जुद्ध अणपार, धार खगां सन्मुख धसै।
भोगै हुए भरतार, रसा जीके नर राजिया॥
अर्थ : जो लोग अनेक बड़े युद्धों में तलवारों की धारों के सम्मुख निर्भिख होकर बढ़ते हैं, राजिया ! वे ही वीर भरतार बनकर इस भूमि को भोगते है.
6.
अवनी रोग अनेक, ज्यांरो विधि किधौ जतन।
इण परकत री एक, रची न ओखद राजिया॥
अर्थ : पृथ्वी पर अनेक रोग हैं जिनके विधाता ने इलाज बनाये है. लेकिन हे राजिया ! इस प्रकृति ( स्वभाव ) के इलाज की एक भी दवा नही रची.
7.
हर कोई जोड़े हाथ, कामण सूं अनमी किसा।
नम्या त्रिलोकी नाथ,राधा आगळ राजीया॥
अर्थ : सभी लोग उसे हाथ जोड़ते हैं अतः स्त्री के आगे न झुकने वाला व्यक्ति भला कौन हो सकता है ? हे राजिया ! जब तीनो लोकों के स्वामी श्री कृष्ण भी राधा जी के आगे झुकते थे, तो साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है ?
मित्रों, इन्हीं सार गर्भित सौरठों के भावों, कारीगरी और कीर्ति से प्रभावित हो जोधपुर के तत्कालीन विद्वान् महाराजा मान सिंह जी ने उस राजिया को देखने हेतु आदर सहित अपने दरबार में बुलाया और उसके भाग्य की तारीफ करते हुए ख़ुद सौरठा बना भरे दरबार में सुनाया :
सोनै री सांजांह जड़िया नग-कण सूं जिके।
किनौ कवराजांह, राजां मालम राजिया॥
अर्थात हे राजिया ! सोने के आभूषणों में रत्नों के जड़ाव की तरह ये सौरठे रच कर कविराजा ने तुझे राजाओं तक में प्रख्यात कर दिया.
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