उपनिषद् : सूक्तियाँ
ॐ गं गणपतये नमः
उपनिषद् : सूक्तियाँ
उपनिषद् : सूक्तियाँ
उपनिषद् : सूक्तियाँ
जय श्रीकृष्ण मित्रों ! कल आप ने वेदों के विषय में पढ़ा। आज मित्रों उपनिषद की विषय में छोटी से कोशिश है।
वेद के चार भाग हैं –
संहिता -संहिता में वैदिक देवी देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं |
ब्राह्मण- ब्राह्मण में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का वर्णन है |
आरण्यक- आरण्यक में कर्मकाण्ड और यज्ञों की रूपक कथाएँ और तत् सम्बन्धी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं |
उपनिषद् (वेदान्त )- उपनिषद् में वास्तविक वैदिक दर्शन का सार है।
उपनिषद् हिन्दू धर्म के धर्मग्रन्थ हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का वर्णन दिया गया है।
उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है।
ब्रह्म, जीव और जगत् का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है।
भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्तकी 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं।
ये संस्कृत में लिखे गये हैं।
17 वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया।
19 वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों का अनुवाद किए।
उपनिषद् में आत्म और अनात्म तत्त्वों का निरूपण किया गया है जो वेद के मौलिक रहस्यों का प्रतिपादन करता है। प्राय: उपनिषद् वेद के अन्त में ही आते हैं। इसलिए ये वेदान्त के नाम से भी प्रख्यात हैं। वैदिक धर्म के मौलिक सिद्धान्तों को तीन प्रमुख ग्रन्थ प्रमाणित करते हैं जो प्रस्थानत्रयी के नाम से विख्यात हैं, ये हैं
उपनिषद्
ब्रह्मसूत्र
श्रीमद्भगवद्गीता
108 उपनिषद एवं उनका वर्गीकरण निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-
1 ऋग्वेदीय 10 उपनिषद्
2 शुक्ल यजुर्वेदीय 19 उपनिषद्
3 कृष्ण यजुर्वेदीय 32 उपनिषद्
4 सामवेदीय 16 उपनिषद्
5 अथर्ववेदीय 31 उपनिषद्
इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं।
जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने 10 पर अपना भाष्य दिया है-
(1) ईश, (2) ऐतरेय (3) कठ (4) केन (5) छांदोग्य (6) प्रश्न (7) तैत्तिरीय (8) बृहदारण्यक (9) मांडूक्य और (10) मुंडक।
उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-
(1) श्वेताश्वतर (2) कौषीतकि तथा (3) मैत्रायणी।
भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से डॉ॰ डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया है:
प्राचीनतम
1. ईश, 2. ऐतरेय, 3. छांदोग्य, 4. प्रश्न, 5. तैत्तिरीय, 6. बृहदारण्यक, 7. मांडूक्य और 8. मुंडक
प्राचीन
1. कठ, 2. केन
अवांतरकालीन
1. कौषीतकि, 2. मैत्री (मैत्राणयी) 3. श्वेताश्वतर
उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है।
सन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यास वाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। गीता का कर्म योग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
मीमांसा :- कर्म कांड और वेदांत वेद की 2 शाखाएँ हैं। संहिता और ब्राह्मण में कर्म कांड का प्रतिपादन किया गया है तथा उपनिषद् एवं आरण्यक में ज्ञान का। मीमांसा दर्शन के आद्याचार्य जैमिनि ने इस कर्मकाण्ड को सिद्धांत बद्ध किया है। प्रतिपादित कर्मों के द्वारा ही मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है।
कर्म तीन प्रकार के हैं :- काम्य, निषिद्ध और नित्य। बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है। मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। सभी कर्मों के परिणाम विधाता तय करता है जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल उसके जन्म-जन्मांतरों के कर्मों के अनुरूप प्रारब्ध के रूप में प्रकट करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही शुभ-अशुभ, रोग-वैराग आदि के रूप में प्रकट होते है और फल के उपरांत नष्ट हो जाते हैं।
मनुष्य सृष्टि नियम के अनुसार जन्म व मरण के चक्र में फंसा हुआ है। सत्कर्मों, ज्ञान व उपासना अर्थात् ईश्वर के साक्षात्कार से मनुष्य का जीवात्मा जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर मुक्ति की अवस्था में चला जाता है। मुक्ति की अवधि एक परान्तरकाल जो 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इस लम्बी अवधि में मुक्त जीवात्मा जन्म मरण के चक्र से छूटा हुआ ईश्वर के सान्निध्य वा मुक्ति में आनन्द के साथ रहता है। मुक्ति से सम्बन्धित कुछ उपनिषदों की सूक्तियां स्वाध्याय हेतु हम प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है कि पाठक इन्हें पसन्द करेंगे।
उपनिषदों की मोक्ष विषयक कुछ सूक्तियां इस प्रकार हैं।
(1) तमीशानं वरदं देवमीड्यम्, निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति। (श्वेता. 4/11)
अर्थः उस सर्वोपरि, मनोवांछित वरो के प्रदाता, ज्योतिस्वरूप, उपास्यदेव ईश्वर को निश्चय पूर्वक जानकर ही उपासक मनुष्य वा योगी इस अत्यन्त शान्ति से पूर्ण मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है।
(2) विद्ययाऽमृतमश्नुते। (ईशोपनिषद 11)
अर्थः जीव, विद्या (ज्ञान) से अमृत (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
(3) अमृतस्य देवधारणो भूयासम्। (तै. शि. 4/1)
अर्थः मैं मुक्ति रूपी सुख का विद्वानों के तुल्य धारण करनेवाला होऊं।
(4) ब्रह्मस्थोऽमृतत्वमेति। (छान्दोग्य उपनिषद 2/23/1)
अर्थः ब्रह्म में लीन भक्त अमृत (मुक्ति) को पा लेता है।
(5) अमृतत्वस्य तु नाशाऽस्ति वित्तेनेति। (बृहदारण्यक उपनिषद 2/4/2)
अर्थः अमृतत्व-परम शान्ति (मोक्ष) की आशा धन से नहीं करनी चाहिए।
(6) स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते। (कठोपनिषद 1/3)
अर्थः स्वर्ग लोक वाले (मुक्ति को प्राप्त जीव) अमृतपन (आनन्द) का सेवन करते हैं।
(7) न साम्परायः प्रतिभाति बालम्। (कठोपनिषद 2/6)
अर्थः अज्ञ (अज्ञानी), अबोध मनुष्य को मोक्ष अच्छा नहीं लगता।
(8) धीराः अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते। (कठोपनिषद 4/2)
अर्थः ध्यानी जन अमृतत्व को जान कर इन अनित्य (सांसारिक) पदार्थों में नित्य (परमात्मा) को नहीं चाहते।
(9) तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतेरषाम्। (कठोपनिषद 5/12)
अर्थः जो धीर पुरूष उसे आत्मस्थ देखते हैं, उन्हें ही स्थिर सुख (मोक्ष) प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं।
(10) पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा, जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति। (श्वेता. उपनिषद 1/7)
अर्थः अपने आपको (अपनी जीवात्मा को) और इस सृष्टि के प्रेरक परमात्मा को पृथक्-पृथक् जानकर, उस परमेश्वर की स्तुति करने-वाला, प्रभु का प्रेमी उपासक, उसकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करता है।
जय श्री कृष्ण मित्रो ! कल मुलाकात होगी
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